हिडिंबा देवी (hidimba devi) मंदिर हिमाचल प्रदेश के कुल्लू जिले में मनाली में स्थित एक प्रसिद्ध तीर्थ स्थल है। हिडिंबा माता मंदिर में हर साल लाखों श्रद्धालु माता हिडिंबा का आशीर्वाद और दर्शन करने आते हैं। मनाली अपने आप में ही एक पर्यटन नगरी है और जो भी पर्यटक मनाली घूमने आते हैं, वे अवश्य ही हिडिंबा माता मंदिर जाते हैं।
हिडिंबा माता मंदिर में तो भीड़ लगी ही रहती है, परंतु हर साल मई माह में मनाया जाने वाला ढुंगरी मेला के समय यहाँ अधिक रौनक होती है। मनाली एक लोकप्रिय पर्यटन स्थल है और हिडिंबा देवी मंदिर इस क्षेत्र की सांस्कृतिक और प्राकृतिक धरोहर की खोज करने वाले पर्यटकों के लिए एक मुख्य आकर्षण है।
हिडिंबा देवी कौन हैं || Who is Hidimba Devi?
महाभारत में हिडिंबा देवी(hidimba devi) का उल्लेख भीम की पत्नी के रूप में मिलता है। हिडिंबा अपने भाई हिडिंब के साथ मनाली के ढुंगरी वन में रहती थी। मान्यता है कि हिडिंब एक राक्षस था, जिसने इस क्षेत्र के निवासियों पर अत्यधिक अत्याचार किए थे। स्थानीय लोग उसके आतंक से बहुत परेशान थे।
जब पांडव अज्ञातवास के दौरान इस क्षेत्र में पहुँचे, तब भीम ने हिडिंब से युद्ध किया और उसका वध कर दिया। इसके बाद क्षेत्र के लोग हिडिंब के आतंक से मुक्त हुए। हिडिंबा ने यह प्रण लिया था कि जो भी योद्धा उसके भाई हिडिंब को परास्त करेगा, वह उसी से विवाह करेगी। इसी कारण हिडिंबा ने भीम से विवाह किया और उनके पुत्र घटोत्कच का जन्म हुआ, जो आगे चलकर महाभारत युद्ध में कौरवों के विरुद्ध पांडवों की ओर से वीरतापूर्वक लड़े।
पांडवों का अज्ञातवास समाप्त होने पर जब वे इस वन से लौटे, तब हिडिंबा ने अपने पुत्र घटोत्कच का पालन-पोषण किया। जैसे ही घटोत्कच बड़ा हुआ, हिडिंबा ने उसे राज्य की देखभाल का दायित्व सौंप दिया और स्वयं वन में जाकर गहन तपस्या में लीन हो गईं।
किंवदंती है कि उनकी कठोर साधना से प्रसन्न होकर देवी दुर्गा ने उन्हें वरदान दिया और तभी से हिडिंबा को देवी का स्वरूप माना जाने लगा। वे राक्षसी कुल में जन्म लेने के बावजूद अपने तप, त्याग और शक्ति के कारण देवत्व को प्राप्त हुईं।
बाद में इस स्थान पर महाराजा बहादुर सिंह (1553–1572 ई.) ने हिडिंबा देवी का भव्य मंदिर बनवाया, जिसे आज भी “हिडिंबा देवी मंदिर” या “ढुंगरी मंदिर” के नाम से जाना जाता है। देवदार के घने जंगलों के बीच स्थित यह मंदिर हिमाचल प्रदेश की प्राचीन वास्तुकला का अद्भुत उदाहरण है।
हिडिंबा देवी मंदिर का इतिहास || hidimba devi temple history
हिडिंबा देवी(hidimba devi) का मंदिर मनाली बाज़ार से लगभग तीन किलोमीटर दूर ढूंगरी नामक स्थान पर स्थित है। यह मंदिर पगोडा शैली में निर्मित है और इसकी वास्तुकला अत्यंत आकर्षक है। मंदिर के भीतर एक विशाल चट्टान है, जिसे देवी का निवास स्थान माना जाता है। चूँकि ‘चट्टान’ का अर्थ स्थानीय बोली में ‘दूंग’ होता है, इसलिए देवी को यहाँ ढूंगरी देवी के नाम से भी जाना जाता है। इस चट्टान के नीचे देवी के चरणचिह्न विराजमान हैं, जिनका आकार लगभग एक फुट का है। यहाँ श्रद्धालु देवी के चरणों की ही पूजा करते हैं।
इस चट्टान के पीछे एक प्राचीन पौराणिक कथा है कि एक बार सोलंगी नाग और देवी हिड़मा व्यास नदी में खेल रहे थे। दोनों ने नदी के प्रवाह को रोककर वहाँ एक झील बना दी। कुछ समय बाद झील का एक भाग टूट गया। तब नाग ने हिड़मा से उसे बंद करने को कहा। जैसे ही वह उसे रोकने लगी, नाग ने अचानक लात मारकर झील का बाँध पूरी तरह तोड़ दिया। प्रचंड वेग से बहते जल में बहती हुई देवी हिड़मा मनाली के समीप एक विशाल चट्टान से टकराकर ठहर गईं। वही चट्टान आज भी ढूंगरी स्थित हिडिंबा देवी मंदिर के भीतर विद्यमान है। इसी कारण इस मंदिर में माता की कोई मूर्ति स्थापित नहीं है, बल्कि इसी चट्टान की पूजा की जाती है और इसे ही माता का स्वरूप माना जाता है।
मंदिर का आकार शंकु के समान है और इसकी ऊँचाई लगभग 40 मीटर है। इसमें चार छतें बनी हुई हैं। नीचे की तीन छतें देवदार की लकड़ी से निर्मित हैं, जबकि सबसे ऊपरी चौथी छत ताँबे और पीतल की है। सबसे नीचे की छत सबसे बड़ी है, दूसरी उससे छोटी, तीसरी और चौथी उससे भी क्रमशः छोटी होती जाती हैं।
मंदिर की दीवारों पर बलि दिए गए बारहसिंगा, भेड़ और बकरी आदि के सींग सजाए गए हैं। मंदिर के द्वारों पर महिषासुरमर्दिनी और दुर्गा माता के चित्र उकेरे गए हैं। इनके अतिरिक्त गौरीशंकर, लक्ष्मीनारायण और कृष्णलीला के दृश्य भी चित्रित किए गए हैं। प्रवेश द्वार के मध्य भाग में गणेश और नवग्रह की आकृतियाँ अंकित हैं।
मंदिर के समीप ही भीम और हिडिंबा के पुत्र घटोत्कच का मंदिर भी स्थित है। उनका रूप अत्यंत विकट था — बड़ी-बड़ी आँखें, विशाल मुख, नुकीले कान, गरजती हुई आवाज़, लाल होंठ और विशाल शरीर। जन्म के समय उसका सिर बालों से रहित था। माता-पिता ने उसके ‘घट’ (सिर) और ‘उत्कच’ (केशहीन) स्वरूप को देखकर उसका नाम घटोत्कच रखा।
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हिडिंबा देवी: कुल्लू राजपरिवार की दादी और उनकी लोककथाएँ || Hidimba Devi The Grandmother of Kullu Royal Family
देवी हिडिंबा को राजघराने की दादी माना जाता है।लोककथाओं के अनुसार कुल्लू के प्रथम शासक विहंगमदास थे, जो प्रारंभ में एक कुम्हार के यहाँ काम करते थे। एक रात उन्हें स्वप्न में देवी हिडिंबा के दर्शन हुए। देवी ने उन्हें आशीर्वाद देते हुए कहा कि वे कुल्लू के राजा बनेंगे। इस स्वप्न को दिव्य संकेत मानकर विहंगमदास ने राजगद्दी संभाली। जनश्रुतियों में यह भी मान्यता है कि आज भी उनके वंशज देवी हिडिंबा की पूजा करते हैं।
लोककथाओं के अनुसार, सिंह वंश के सिद्ध पाल (सिन्धु सिंह) को देवी हिडिंबा ने उनकी धर्मनिष्ठा की परीक्षा लेने के लिए परखा। कहानी में बताया गया है कि सिद्ध पाल ने जगतसुख में एक ब्राह्मण की वृद्ध स्त्री (जो बाद में हिडिंबा देवी निकलीं) के लिए भारी बर्तन उठाया। उनके इस परोपकारी कृत्य से प्रसन्न होकर देवी ने उन्हें अपनी पीठ पर बैठाया और 32 कोस की ऊँचाई तक ले जाकर आसपास के भूभाग का दर्शन कराया। इसके बाद देवी ने आशीर्वाद स्वरूप कहा, “अब जितनी दूर तक तुम देख सकते हो, वह सब तुम्हारा है।
लोककथाओं के अनुसार, भगवान कृष्ण ने हिडिंबा देवी से कहा कि अगर वह पांडवों के साथ जातीं, तो उन्हें हमेशा राक्षसी कहा जाएगा। लेकिन यदि वह यहीं तपस्या करेंगी, तो उनके वंश के लोग उन्हें कुल देवी के रूप में सम्मान देंगे। हिडिंबा ने तपस्या की और माँ भगवती उनसे प्रसन्न हुईं। हालांकि उस समय उन्हें इस क्षेत्र में पूजा नहीं जाता था।
कुल्लू में अकाल के समय भृंगमुनि पाल नामक एक साधु आए। उन्होंने देवी को सच्चे मन से “दादी मां” कहकर पुकारा। उनकी भक्ति से प्रसन्न होकर देवी ने उन्हें आशीर्वाद दिया कि जब तक उनका परिवार उन्हें ‘दादी’ के रूप में पूजेगा, तब तक उनका राजपाट सुरक्षित रहेगा।
तब से कुल्लू के राजपरिवार में हिडिंबा देवी को ‘दादी मां’ के रूप में पूजा जाता है। राजा महेश्वर सिंह भी इसे सत्य मानते हैं और कहते हैं कि इसी कारण हिडिंबा देवी को राजघराने की दादी कहा जाता है।
कुल्लू दशहरा और देवी हिडिंबा || Kullu Dussehra and Devi Hidimba
कुल्लू दशहरा हिमाचल प्रदेश के कुल्लू घाटी का प्रमुख धार्मिक उत्सव है जिसमें आसपास के लगभग 200 देवताओं की पालकियाँ डोलकर रघुनाथजी को प्रणाम करने के लिए आती हैं। परंपरा के अनुसार इस पर्व की शुरुआत हिडिंबा देवी (hidimba devi) के आगमन से होती है। हिडिंबा देवी को यहां की आदिम देवी माना जाता है। इसलिए देवी हिडिंबा की रथयात्रा के बिना कुल्लू दशहरा आरंभ नहीं हो सकता।
देवी हिडिंबा का आगमन और पारंपरिक सत्कार
कुल्लू दशहरे के पहले दिन राजा का प्रतिनिधि चाँदी की छड़ी लेकर रामशिला नामक स्थान पर देवी हिडिंबा का स्वागत करने जाता है। देवी हिडिंबा रामशिला पर ठहरती हैं और राज्य प्रतिनिधि की अगुवाई में पहले रघुनाथजी के मंदिर और फिर राजमहल पहुंचती हैं। राजमहल के द्वार इस समय बंद कर दिए जाते हैं और देवी के गीत-नगाड़ों के साथ प्रवेश करती है। इसके बाद महल में पुजारी देवी के विराजमान स्वरूप को अहसास कर ‘पोत्रु!’ (दादा जी के सुपुत्र) पुकारता है, तभी राजा द्वार खोलकर बाहर आते हैं। यह अनूठी परंपरा देवी के प्रति सर्वोच्च सम्मान को दर्शाती है, क्योंकि देवी हिडिंबा को राजघराने की ‘दादी’ माना जाता है।
देवी हिडिंबा के महल पहुंचने और राजा के सत्कार के बाद ही रघुनाथजी की रथयात्रा शुरू होती है। देवी हिडिंबा की पालकी आस्था की ऐसी चेतावनी है कि उसके आने के बाद ही अन्य देवताओं के झुंड और रघुनाथजी का पावन रथ दुल्हन की तरह सजाकर ढालपुर मैदान की ओर बढ़ता है। पूरे उत्सव में राजघराना और स्थानीय लोग पारंपरिक वेशभूषा में भाग लेते हैं, जिससे यह महोत्सव एक जीवंत सांस्कृतिक आयोजन बन जाता है
पशुबलि की प्रथा और बदलाव
परंपरागत रूप से कुल्लू दशहरे के अंतिम दिन पशुबलि की रस्में होती रही हैं। इतिहास में उल्लेख मिलता है कि दशहरे के समापन पर भैंसा, मेढा (भेड़ का नर), मछली, केकड़ा और मुर्गा की बलि दी जाती थी यह परंपरा एक धार्मिक महत्व रखती थी लेकिन पशु-हितैषी समूहों के विरोध के कारण अब आधिकारिक रूप से इसे रोक दिया गया है। स्थानीय कथाओं में मई महीने में ‘हूँगरी जातरा’ नामक पर्व का भी जिक्र मिलता है, जिसमें कभी-कभार भैंसे की बलि का उल्लेख है; इसे अंग्रेज़ यात्री जॉन कैल्वर्ट ने अपनी पुस्तक दि सिल्वर कंट्री (1873) में भी दर्शाया है। वर्तमान में पशुबलि की जगह नारियल आदि समर्पित कर परम्परा निभाई जाती है।
इन सभी प्रथाओं के माध्यम से कुल्लू दशहरा केवल देवी-देवताओं की नहीं, बल्कि कुल्लू की समृद्ध लोककथा और संस्कृति की भी सजीव झलक प्रस्तुत करता है। नित्य बदलती दुनिया में भी यह उत्सव स्थानीय आस्था और परंपराओं को नई ऊर्जा से जोड़ता है।
हिडिम्बा देवी मंदिर आने का सबसे अच्छा समय || Best Time to Visit Hidimba Devi Temple
हिडिंबा देवी मंदिर का सबसे अच्छा समय अक्टूबर से अप्रैल यानी सर्दियों में है, जब बर्फ और देवदार के पेड़ इसकी खूबसूरती को बढ़ाते हैं। सर्दियों में आप स्नो एक्टिविटीज का आनंद ले सकते हैं। गर्मियों में याक पर सवारी और फोटो लेना पसंद किया जाता है, जबकि बारिश के मौसम से बचना चाहिए, क्योंकि यात्रा कठिन हो जाती है।
हिडिम्बा देवी मंदिर कैसे पहुंचे || How to reach Hidimba Devi Temple?
सड़क मार्ग:
मनाली पहुँचने के बाद आप मॉल रोड तक ऑटो या टैक्सी ले सकते हैं और फिर पैदल मंदिर तक जा सकते हैं।
रेल मार्ग:
मनाली के सबसे नजदीकी रेलवे स्टेशन जोगिन्दर नगर है, जो लगभग 150 किलोमीटर दूर है। जोगिन्दर नगर से मनाली तक सड़क मार्ग द्वारा बस, टैक्सी या शेयरिंग कैब के माध्यम से पहुँचा जा सकता है।
हवाई मार्ग:
मनाली के नजदीकी हवाई अड्डा भुंतर एयरपोर्ट है, जो लगभग 50 किलोमीटर दूर है। एयरपोर्ट से मनाली तक टैक्सी या ऑटो द्वारा आसानी से पहुँचा जा सकता है।