हिमाचल प्रदेश की कुल्लू घाटी में बसा मणिकरण, एक ऐसा धार्मिक स्थल है जहाँ हिंदू और सिख आस्थाएँ एक साथ जीवित हैं। यहां बहते गर्म जल के झरने, पार्वती नदी की गर्जना और सदियों पुरानी मान्यताएं इसे एक रहस्यमय व पवित्र तीर्थ बनाती हैं।
क्या मणिकरण केवल गुरुद्वारे और मंदिरों के लिए प्रसिद्ध है, या इसके पीछे छिपे हैं कोई गहरे पौराणिक रहस्य? आइए जानें इस दिव्य भूमि की पूरी कहानी।
हिंदू मान्यताओं में मणिकर्ण
मणिकर्ण का नाम दो शब्दों से बना है – “मणि” (रत्न) और “कर्ण” (कान)। एक पुरानी कथा के अनुसार, जब भगवान शिव और माता पार्वती ने इसी पवित्र भूमि पर तपस्या की थी। एक दिन, जब देवी पार्वती एक जलकुंड में स्नान कर रही थीं, तभी उनके कानों की एक कीमती मणि जलधारा में गिर गई।
भगवान शिव ने अपने गणों को वह मणि ढूंढने का आदेश दिया, लेकिन सभी प्रयास व्यर्थ रहे। इससे शिव अत्यंत क्रोधित हो उठे और उन्होंने अपना तीसरा नेत्र खोल दिया। उनके इस अतिरेक क्रोध से ब्रह्मांड में उथल-पुथल मच गई। तभी शक्ति का एक तेजस्वी रूप, नैना देवी, प्रकट हुईं।
नैना देवी ने शिव को बताया कि वह मणि शेषनाग के पास है। देवताओं की विनती पर शेषनाग ने वह मणि लौटा दी, लेकिन शिव के कोप से व्याकुल शेषनाग ने इतनी तीव्र फुंकार भरी कि धरती फट गई और वहां से गर्म जल की धाराएं फूट निकलीं।
यही वह क्षण था, जब इस स्थान को “मणिकरण” नाम मिला मणि के कारण उत्पन्न हुआ वह स्थल, जहां आज भी गर्म जल के चमत्कारिक स्रोत देखे जा सकते हैं।
सिख आस्था
सिख धर्म में मणिकरण का महत्व श्री गुरु नानक देव जी के समय से जुड़ा है। वर्ष 1574 में, गुरु नानक देव जी अपने अनुयायियों के साथ यहां आए और यहीं पर उन्होंने भूखे लोगों के लिए लंगर तैयार करवाया। उनके अनुयायी माई लालो और भाई मरदाना ने पत्थरों से बर्तन बनाकर गर्म पानी में भोजन पकाया।
गुरुद्वारा मणिकरण साहिब आज भी इस करामात की याद में लंगर और सेवा का केंद्र बना हुआ है।
प्रसाद पकाने की प्राचीन विधि
यहाँ मणिकरण साहिब में प्रसाद पकाने की पारंपरिक विधि बेहद अनोखी और श्रद्धा से जुड़ी हुई है। यहां लंगर में जो चावल और दाल पकाई जाती है, उसे किसी चूल्हे या गैस पर नहीं बनाया जाता, बल्कि प्राकृतिक रूप से उबलते गर्म झरनों में पकाया जाता है।
विधि कुछ इस प्रकार है:
- चावल या दाल को मजबूत सूती कपड़े में बांधकर पोटली (थैली) बना दी जाती है।
- यह पोटली गर्म झरनों में बनाए गए विशेष कुंडों में सावधानी से डाल दी जाती है।
- झरनों का तापमान लगभग 90 से 100 डिग्री सेल्सियस होता है, इसलिए कुछ ही मिनटों में पोटली के अंदर रखा चावल या दाल पूरी तरह से पक जाता है।
- पकने के बाद इसे बाहर निकाला जाता है और ठंडा करके श्रद्धालुओं में प्रसाद के रूप में बांटा जाता है।
यह विधि न केवल पर्यावरण के अनुकूल है, बल्कि यह मणिकरण की भक्ति, परंपरा और प्रकृति के अद्भुत संगम को दर्शाती है।
धार्मिक मान्यता
- ऐसा माना जाता है कि ये झरने भगवान शिव के क्रोध और शेषनाग की थरथराहट के कारण उत्पन्न हुए।
- यहाँ स्नान करने से पापों का नाश और चर्म रोगों से मुक्ति मिलती है।
मणिकर्ण के चमत्कारी झरनों के लाभ
मणिकर्ण के पानी में प्राकृतिक रूप से सल्फर होता है, जो चर्म रोगों, जोड़ों के दर्द और तनाव से राहत के लिए उपयोगी माना जाता है। बाहर चाहे बर्फबारी हो या तापमान माइनस में चला जाए, मणिकरण के झरनों का तापमान हमेशा लगभग 94°C से ऊपर ही बना रहता है।
नानक देव जी के समय का “पत्थर का तवा”
लोककथाओं के अनुसार, जब मणिकरण में भोजन पकाने के लिए आग उपलब्ध नहीं थी, तब गुरु नानक देव जी ने एक ठंडे पत्थर पर हाथ रखा और वह तपते तवे की तरह गर्म हो गया। उसी पर रोटियाँ पकाई गईं और लंगर शुरू हुआ। ऐसा माना जाता है कि वही चमत्कारी पत्थर आज भी गुरुद्वारे के पास मौजूद है।
स्थानीय लोगों का मानना है कि अगर किसी को बदन दर्द या मांसपेशियों में तकलीफ हो तो वह उस पत्थर पर कुछ देर लेटे, तो उन्हें राहत मिलती है। यह पत्थर आज भी श्रद्धालुओं के लिए आस्था और उपचार का प्रतीक बना हुआ है।
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कैसे पहुंचे:
- निकटतम शहर: भुंतर (35 किमी), कुल्लू (45 किमी)
- हवाई अड्डा: भुंतर एयरपोर्ट
- रेलवे स्टेशन: जोगिंदरनगर
- बस/टैक्सी: मनाली से सीधी बसें उपलब्ध
कब जाएं:
- मार्च से जून: मौसम सुहावना
- जुलाई-अगस्त: मानसून, पर गर्म झरनों का अनुभव शानदार
- नवंबर से फरवरी: बर्फबारी और शांत वातावरण
मणिकरण सिर्फ एक तीर्थ स्थल नहीं, यह एक आध्यात्मिक और रहस्यमय अनुभव है जहाँ प्रकृति, पौराणिकता और श्रद्धा का अद्भुत संगम होता है।
गर्म जल के झरने, शिव-पार्वती की कथा, गुरु नानक देव की सेवा भावना और घाटी की निर्मलता – ये सब मिलकर मणिकरण को “धरती का तप्त तीर्थ” बनाते हैं।